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Aatm Chintan | Nature's Beauty | Prakruti Manushya ke Bich ka Sambandh

 प्रकृति के लिए आत्मचिंतन



संपूर्ण सृष्टि में मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जिसके अंदर अलौकिक शक्ति विद्यमान है जिसके कारण वह संपूर्ण सृष्टि में अपना आधिपत्य स्थापित कर रहा है लेकिन वह आत्म चिंतन से एवं प्रकृति से दूर होता जा रहा है प्रकृति अपना कार्य करने में अधिक समय लगाती है

 जैसे एक बीज को वृक्ष बनने में कई साल लग जाते हैं लेकिन मनुष्य प्रकृति से दूर होकर अपना कार्य कर रहा है वह अपने सुख को देखते हुए अति शीघ्र प्रकृति को ठेस पहुंचाता जा रहा है जिसको मनुष्य सुख बोलते हैं वह वास्तव में सुख नहीं उसके लिए दुखों का पहाड़ बन जाता है

 हमारा भरण-पोषण प्रकृति के ही माध्यम से होता है तो फिर हम क्यों उसके विपरीत कार्य करते हैं जब बच्चा छोटा होता है तो हम उसे सांस लेना नहीं सिखाते रोना नहीं सिखाते लेकिन प्रकृति सभी प्राणियों का एक मां की तरह समान भाव से सभी के लिए समान कार्य करती है हर वस्तु जो हम प्रयोग में लाते हैं

 वह प्रकृति से ही उत्पन्न हुई है हमें गर्भ में कुछ भी नहीं मिला तो प्रकृति का सभी के प्रति एक जैसा व्यवहार होने के कारण वह हर प्राणी का समुचित रूप से भरण पोषण कर रही है लेकिन मनुष्य स्वार्थी हो गया है हमारा शरीर पंच तत्वों से बना है

 पृथ्वी जल तेज वायु आकाश यह ये पांचो तत्व  हमें प्रकृति ने दिए हैं जो पंच तत्वों से हमारा शरीर बना है उसी में विलीन हो जाता है

 हम कहते हैं हम ईश्वर की संतान हैं ईश्वर कौन इस प्रकृति में विद्यमान हर वह कण  जो हमें शक्ति देता है वह इस पर है और प्रकृति के बिना हमारा जीवन संभव नहीं तो हमें अपने प्रकृति के उत्थान के लिए उसको अग्रसर करने में उसका साथ देना चाहिए ना कि अपने क्षण भर के सुख के लिए प्रकृति को नुकसान पहुंचाना चाहिए

Nature's agony Poem | प्रकृति की पीड़ा कविता

मैं हरा भरा हूं प्रकृति में छवि बिखेर रहा हूं
 खड़ा हूं मैं एक जगह पर चारों तरफ देख रहा हू| 
काट  रहे हैं मानुष मुझको मैं दर्द सह रहा हूं
 मैं खुद ना जीवित हूं पर तुम्हें जीवित कर रहा हूं
 मैं हरा भरा हूं प्रकृति में छवि बिखेर रहा हूं||

  मेरे पर ना ऐसा कहर बरसाओ
 मेरे को जिंदा करो मेरी जान बचाओ
 वृक्षारोपण करो वृक्ष लगाओ
 पर्यावरण को शुद्ध करो और जान बचाओ||

 मेरे से है जीवन तुम्हारा मेरा मत करो सहार 
अपने स्वार्थ के लिए मुझ पर मत करो प्रहार
 मैं कष्टदायक जीवन जी रहा हूं
 पीड़ा से करा रहा हूं||
 मेरा घाव भरा नहीं है
 मैं फिर भी कह रहा हूं मैं हरा भरा हूं प्रकृति में छवि बिखेर रहा हूं|

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